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दो चट्टानें

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7204
आईएसबीएन :9788170287834

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तब तलक जब तलक आसन पर न हो जाता सुरक्षित...

Do Chattanein - A Hindi Book - by Harivansh Rai Bachchan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

देश का सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक पुरस्कार, बच्चनजी को उनके कविता-सग्रंह ‘दो चट्टानें’ पर मिला था। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित होना अपनी विशिष्टता लिये हुए है। यह भी कहा जा सकता है कि बच्चनजी को सम्मानित करने से साहित्य अकादमी के पुरस्कार की भी गरिमा बढ़ी है। इस सम्मान से वर्षों पहले से ही बच्चनजी हिन्दी के सुधी पाठकों के हृदय पर राज कर रहे थे–अपनी कविताओं के द्वारा।

बच्चनजी संभवतः हिन्दी के सबसे अधिक लोकप्रिय कवि हैं। उनके कविता-संग्रहों के बीसियों संस्करण निकल चुके हैं, विशेषकर ‘मधुशाला’, ‘मधुबाला’ और ‘मधुकलश’ के। उनके अन्य काव्यसंकलन ‘निशा निमंत्रण’, ‘जाल समेटा’, ‘मिलन यामिनी’ आदि भी कम लोकप्रिय नहीं हैं। सरल-सहज भाषा में हृदय में उठती विभिन्न भावनाओं को अभिव्यक्त करना उनकी विशेषता है और इसीलिए पिछले अस्सी वर्षों से उनकी कविताएँ लोगों की ज़ुबान पर चढ़ी हुई हैं।
बच्चनजी एक सफल गद्य-लेखक भी हैं और उनकी चार भागों में लिखी आत्मकथा हिन्दी साहित्य में मील के पत्थर का स्थान रखती है। इस सब के बावजूद बच्चनजी का नाम लोकप्रिय कविता का पर्याय बन चुका है।

 

अनुक्रम

 

१. सूर समर करनी करहिं
२. बहुरि बंदि खलगन सति भाएँ...
३. उघरहिं अन्त न होइ निबाहू
४. विभाजितों के प्रति
५. २६-१-’६३
६. मूल्य चुकाने वाला
७. २७ मई
८. गुलाब की पुकार
९. द्वीप-लोप
१॰. गुलाब, कबूतर और बच्चा
११. दो फूल
१२. कील-काँटों में फूल
१३. विक्रमादित्य का सिंहासन
१४. खून के छापे
१५. भोलेपन की कीमत
१६. गाँधी
१७. युग-पंक : युग-ताप
१८. बाढ़-पीड़ितों के शिविर में
१९. युग और युग
२॰. लेखनी का इशारा
२१. कुकडूँ-कूँ
२२. सुबह की बाँग
२३. गत्यवरोध
२४. गैंडे की गवेषणा
२५. श्रृगालासन
२६. सृजन और साँचा
२७. मेरे जीवन का सबसे बड़ा काम
२८. आधुनिक निंदक
२९. कवि से, केचुआ
३॰. क्रुद्ध युवा बनाम क्रुद्ध वृद्ध
३१. काठ का आदमी
३२. माँस का फर्नीचर
३३. भुस की गठरी और हरी घास का आँगन
३४. घर उठाने का बखेड़ा
३५. दयनीयता : संघर्ष : ईर्ष्या
३६. दिए की माँग
३७. ऐसा क्यों करता हूँ
३८. शिवपूजन सहाय के देहावसन पर
३९. ड्राइंग रूम में मरता हुआ गुलाब
४॰. दो रातें
४१. जीवन-परीक्षा
४२. आभास
४३. एक फिकर–एक डर
४४. माली की साँझ
४५. दो युगों में
४६. दो बजनिए
४७. भिगाए जा, रे...
४८. मुक्ति के लिए विद्रोह
४९. सार्त्र के नोबल-पुरस्कार ठुकरा देने पर
५॰. धरती की सुगंध
५१. शब्द-शर
५२. नया-पुराना
५३. दो चट्टानें


सूर समर करनी करहिं

 

सर्वथा ही
यह उचित है
औ’ हमारी काल-सिद्ध, प्रसिद्ध
चिर-वीरप्रसविनी,
स्वाभिमानी भूमि से
सर्वदा प्रत्याशित यही है,
जब हमें कोई चुनौती दे,
हमें कोई प्रचारे,
तब कड़क
हिमश्रृंग से आसिंधु
यह उठ पड़े,
हुन्कारे–
कि धरती कँपे,
अम्बर में दिखाई दें दरारें।

शब्द ही के
बीच में दिन-रात बसता हुआ
उनकी शक्ति से, सामर्थ्य से–
अक्षर–
अपरिचित मैं नहीं हूँ।
किन्तु, सुन लो,
शब्द की भी,
जिस तरह संसार में हर एक की,
कमज़ोरियाँ, मजबूरियाँ हैं–
शब्द सबलों की
सफल तलवार हैं तो
शब्द निर्बलों की
पुंसक ढाल भी हैं।
साथ ही यह भी समझ लो,
जीभ को जब-जब
भुजा का एवज़ी माना गया है,
कण्ठ से गाया गया है

और ऐसा अजदहा जब सामने हो
कान ही जिसके न हों तो
गीत गाना–
हो भले ही वीर रस का वह तराना–
गरजना, नारा लगाना,
शक्ति अपनी क्षीण करना,
दम घटाना।
बड़ी मोटी खाल से
उसकी सकल काया ढकी है।
सिर्फ भाषा एक
जो वह समझता है
सबल हाथों की
करारी चोट की है।

ओ हमारे
वज्र-दुर्दम देश के,
विक्षुब्ध-क्रोधातुर
जवानो !
किटकिटाकर
आज अपने वज्र के-से
दाँत भींचो,
खड़े हो,
आगे बढ़ो;
ऊपर चढ़ो,
बे-कण्ठ खोले।
बोलना हो तो
तुम्हारे हाथ की दी चोट बोले !

बहुरि बंदि खलगन सति भाएँ...
खलों की (अ) स्तुति
हमारे पूर्वजन करते रहे हैं,
और मुझको आज लगता,
ठीक ही करते रहे हैं;
क्योंकि खल,
अपनी तरफ से करे खलता,
रहे टेढ़ी,
छल भरी,
विश्वासघाती चाल चलता,
सभ्यता के मूल्य,
मर्यादा,
नियम को
क्रूर पाँवों से कुचलता;
वह विपक्षी को सदा आगाह करता,
चेतना उसकी जगाता,
नींद, तंद्रा, भ्रम भगाता
शत्रु अपना खड़ा करता,
और वह तगड़ा-कड़ा यदि पड़ा
तो तैयार अपनी मौत की भी राह करता।

आज मेरे देश की
गिरि-श्रृंग उन्नत,
हिम-समुज्ज्वल,
तपःपावन भूमि पर
जो अज़दहा
आकर खड़ा है,
वंदना उसकी
बड़े सद्भाव से मैं कर रहा हूँ;
क्योंकि अपने आप में जो हो,
हमारे लिए तो वह
ऐतिहासिक,
मार्मिक संकेत है,
चेतावनी है।
और उसने
कम नहीं चेतना
मेरे देश की छेड़ी, जगाई।
पंचशीली पँचतही ओढ़े रज़ाई,
आत्मतोषी डास तोषक,
सब्ज़बागी, स्वप्नदर्शी
योजना का गुलगुला तकिया लगाकर,
चिर-पुरातन मान्यताओं को
कलेजे से सटाए,
देश मेरा सो रहा था,
बेखबर उससे कि जो
उसके सिरहाने हो रहा था।
तोप के स्वर में गरजकर,
प्रध्वनित कर घाटियों का
स्तब्ध अंतर,
नींद आसुर अजदहे ने तोड़ दी,
तंद्रा भगा दी।
देश भगा दी।
देश मेरा उठ पड़ा है,
स्वप्न झूठा पलक-पुतली से झड़ा है,
आँख फाड़े घूरता है
घृण्य, नग्न यथार्थ को
जो सामने आकर खड़ा है।
प्रांत, भाषा धर्म अर्थ-स्वार्थ का
जो वात रोग लगा हुआ था–
अंग जिससे अंग से बिलगा हुआ था...
एक उसका है लगा धक्का
कि वह गायब हुआ-सा लग रहा है,
हो रहा है प्रकट
मेरे देश का अब रूप सच्चा !
अज़दहे, हम किस क़दर तुझको सराहें,
दाहिना ही सिद्ध तू हमको हुआ है
गो कि चलता रहा बाएँ।

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